स्कूल के बच्चे पढ़ेंगे अब शिबू सोरेन की जीवन संघर्ष को

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स्कूली बच्चे पढ़ेंगे दिशोम गुरु शिबू सोरेन की जीवनी, देखिये गुरु जी का दिशोम गुरु बनने की संघर्ष गाथा
शिबू सोरने ने इन पांच रुपये के साथ अपना घर छोड़ दिया, बाद में महाजनी प्रथा, नशा मुक्त आन्दोलन से जुड़ गयें, इसी आन्दोलन के दौरान उनके द्वारा एक आश्रम की स्थापना की गयी, जहां वह आदिवासी-मूलवासी समाज के बच्चों को पढ़ाने का काम भी करते थें, और यही से उनकी पहचान गुरु जी के रुप में होने ल
RANCHI : हेमंत सरकार ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए स्कूली बच्चों को दिशोम गुरु शिबू सोरेन की जीवनी पढ़ाने का फैसला लिया है, इसके लिए सरकार ने तीन पुस्तकों को प्रकाशित करवाने का फैसला किया है, पहली पुस्तक सुनो बच्चों चित्रात्मक होगी. जबकि दूसरी पुस्तक आदिवासी संघर्ष के नायक शिबू सोरेन की गाथा होगी, जबकि तीसरी पुस्तक ‘ट्राइबल हीरो शिबू सोरेन’ की होगी.

पिता की हत्या ने बदला उनका जीवन

याद रहे कि शिबू सोरेन झारखंड के सृजनकर्ता माने जाते हैं, हालांकि अलग झारखंड राज्य का बिगूल रामदयाल मुंडा ने फूंक दिया था, लेकिन गुरु ने अपने संघर्षों से उस सपनों को मुकाम तक पहुंचाने में सफलता हासिल की. दिशोम गुरु की लोकख्याती अर्जित करने वाले शिबू सोरन का संघर्ष की शुरुआत उनके बचपन से होती है. जब 17 नवंबर 1957 का वह दिन था जब शिबू सोरन के पिता सोबरन सोरेन अपने दोनों बेटों के लिए छात्रावास में चावल पहुंचाने जा रहे थें, अंधेरी रात थी, सोबेरन सोरेन को उनके सहयोगियों ने किसी अनहोनी की आशंका व्यक्त की, लेकिन सोबेरन सोरेन ने इस अनसुना कर चलने को कहा, बीच रास्ते में धारदार हथियार से उनकी हत्या कर दी गयी, वह चुड़ा जो उनके पिता शिबू और उनके भाई के लिए ले जा रहे थें, हत्या के बावजूद उनके हाथ में लटका रहा. यही से शिबू सोरेन की जिंदगी बदल गयी.

रामगढ़ राजा कामाख्या नारायण सिंह के तहसलीदार थें उनके दादा

दरअसल शिबू सोरेन के दादा रामगढ़ राजा कामाख्या नारायण सिंह के तहसीलदार थें, इस प्रकार उनके परिवार में कोई कमी नहीं थी, लेकिन उनके दादा ने जमीन का एक टूकड़ा किसी को जीवन यापन के लिए दिया था, और जमीन का यही टूकड़ा उनकी मौत का कारण बना. पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन का मन पढ़ाई से उचट गया, और अब वह घर से निकलना चाहते थें, एक दिन उनकी नजर अपनी मां के द्वारा रखी गयी एक हाड़ी पर पड़ी, उनकी मां इस हाड़ी में हर रोज एक मुट्ठी अनाज बचा कर रखती थी, किशोर शिबू ने उस हाड़ी से अनाज को निकाला और उसे बेच डाला, किसी प्रकार उन्हे पांच रुपये मिले और यही पांच रुपये उनके जिन्दगी की पूंजी बन गयी.

महज पांच रुपये के साथ छोड़ा था घर

शिबू सोरने ने इन पांच रुपये के साथ अपना घर छोड़ दिया, बाद में महाजनी प्रथा, नशा मुक्ति आन्दोलन से जुड़ गयें, इसी आन्दोलन के दौरान उनके द्वारा एक आश्रम की स्थापना की गयी, जहां वह आदिवासी-मूलवासी समाज के बच्चों को पढ़ाने का काम भी करते थें, और यही से उनकी पहचान गुरु जी के रुप में होने लगी, जैसे जैसे उनका आन्दोलन बढ़ता गया, उनका पहचान विस्तार लेता गया और अन्तत: उनकी पहचान दिशोम गुरु के रुप में हो गयी. उनकी एक आवाज पर पूरा संताल जुटने लगा, उनकी आवाज को आदिवासी मूलवासियों की आवाज माने जाने लगी, हालांकि इस बीच उन पर पुलिस का दमनचक्र भी चला, उन्हे जंगलों की खाक छाननी पड़ी, लेकिन बाद में उनके द्वारा अपने सहयोगियों के साथ जेएमएम की स्थापना की गयी, और वह झारखंड के सृजनकर्ता के रुप में सामने आये.

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